Wednesday, December 31, 2014

नववर्ष पर एक कविता : नर हो न निराश करो मन को...


नववर्ष पर " मैथिलीशरण गुप्त जी" की कविता -

नर हो न निराश करो मन को।
कुछ काम करो कुछ काम करो,
जग में रहकर निज नाम करो,
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को,
नर हो न निराश करो मन को।

सम्भलो कि सुयोग न जाय चला,
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना,
पथ आप प्रशस्थ करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को,
नर हो न निराश करो मन को।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्व यहां,
फिर जा सकता वह सत्व कहां।
तुम स्वत्व सुधा रस पान करो,
उठकर अमरत्व विधान करो।
दवरूप रहो भव कानन को,
नर हो न निराश करो मन को।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे,
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को,
नर हो न निराश करो मन को।


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