Saturday, January 18, 2014

मीर तकी 'मीर' की गजल :-


अब की हजार रंग गुलिस्तां में आए गुल
पर उस बगैर अपने तो जी को न भाए गुल
नाचार हो 'चमन में न रहिये' कहूँ हूं जब
बुलबुल कहे है 'और कोई दिन बराए-गुल'
बुलबुल को क्या सुने कोई उड़ जाते हैं हवास
जब दर्दमंद कहते हैं दम भर के 'हाय गुल'
क्या समझें लुत्फ़ चेहरों के रंगों- बहार का
बुलबुल ने और कुछ नहीं देखा सिवाय गुल
या वस्फ़ उन लबों का जबाने-कलम पे 'मीर'
या मुंह में अंदलीब के थे बर्ग-हाय-गुल.
                               -- मीर तकी 'मीर'

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